सोमवार, 17 दिसंबर 2012

महज़ एक छलावा तो नहीं है गरीबी का कम होना??

प्रसिद्द अर्थशास्त्री रेगनर नर्कसे ने कहा था की कोई व्यक्ति गरीब है क्योंकि वह गरीब है , अर्थात गरीब व्यक्ति गरीबी की वजह से ठीक से भोजन नहीं कर पाता ,इसलिए उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता , जिसकी वजह से वह कुपोषण का शिकार रहता है ,वह ठीक से काम नहीं कर पाता , फिर वह खर्च नहीं कर पाता इस प्रकार गरीबी का दुष्चक्र चलता रहता है और गरीब व्यक्ति गरीब बना रहता है। 
हमारी सरकार गरीबी को कम करने के लिए हमेशा स्वयं को सजग दिखाती रही ,समय-समय पर तरह -तरह की योजनाओं का क्रियान्वयन करती रही ,गरीबी की गणना के लिए तरह-तरह की समितियों का गठन करती रही ,लेकिन इन सब के बीच सबसे बड़ा प्रश्न यही है की क्या सरकार वाकई में प्रतिबद्ध है गरीबी को कम करने के लिए ?क्योंकि कई बार सरकार द्वारा जारी आंकडें ही इनके क्रियाकलापों की पोल खोलते हैं.NSSO की रिपोर्ट के मुताबिक 1999-2000 में जहाँ देश में निर्धनता का प्रतिशत 26.1 का तो 2004-05 में यह प्रतिशत घटकर 21.8 रह गया ,लेकिन 2008 में सरकार द्वारा गठित तेन्दुलकर समिति ,जिन्होंने 2009 में रिपोर्ट प्रस्तुत की ,रिपोर्ट के मुताबिक 2004-05 में निर्धनता का प्रतिशत 37.2 था . हाल ही में आमदनी और खर्च संबंधी राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन [एनएसएसओ] के सर्वे में यह बात सामने आई है कि करीब 60 फीसद ग्रामीण आबादी रोजाना 35 रुपये से भी कम पर गुजर-बसर करने को मजबूर है। इनमें से भी 10 फीसदी लोगों की हालत तो और बदतर है। जीने के लिए वे सिर्फ 15 रुपये ही रोजाना खर्च कर पाते हैं। सरकार तमाम योजनाओं के जरिए गरीबी दूर करने के दावे कर रही है, लेकिन खुद उसी के आकड़े ही इन दावों की पोल खोल रहे हैं।

एनएसएसओ की ओर से जुलाई, 2009 से जून, 2010 के बीच कराए गए सर्वे के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में एक व्यक्ति का औसत मासिक खर्च 1,054 रुपये है। वहीं शहरी इलाकों में यह आकड़ा 1,984 रुपये मासिक है। इस हिसाब से शहरवासी औसतन 66 रुपये रोजाना खर्च करने में सक्षम हैं। वैसे, 10 फीसद शहरी आबादी भी मात्र 20 रुपये पर गुजारा कर रही है। यह राशि ग्रामीण इलाकों से थोड़ी ही ज्यादा है।

सर्वे की मानें तो महीने के इस खर्च के मामले में बिहार और छत्तीसगढ़ के ग्रामीणों की हालत सबसे ज्यादा खराब है। यहा लोग करीब 780 रुपये महीने पर अपना भरण पोषण कर पाते हैं। यह रकम महज 26 रुपये रोजाना बैठती है। इसके बाद ओडिशा और झारखंड का स्थान है, जहा प्रति व्यक्ति 820 रुपये महीने का खर्च है। खर्च के मामले में केरल अव्वल है। यहा के ग्रामीण 1,835 रुपये मासिक खर्च करते हैं। शहरी आबादी के मासिक खर्च में महाराष्ट्र शीर्ष पर है। यहा प्रति व्यक्ति खर्च 2,437 रुपये है। बिहार इस मामले में भी सबसे पिछड़ा हुआ है। यहा की शहरी आबादी मात्र 1,238 रुपये महीने पर पेट पालती है।

एनएसएसओ के अनुमान पर ही योजना आयोग ने शहरी इलाकों में 28.65 रुपये और ग्रामीण इलाकों में 22.42 रुपये रोजाना कमाने वालों को गरीबी रेखा से नीचे रखा था। इन आकड़ों पर खूब बवाल मचा था। आयोग के मुताबिक वर्ष 2009-10 में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों [बीपीएल] की संख्या 35.46 करोड़ थी। वर्ष 2004-05 में देश के 40.72 करोड़ लोग इस रेखा से नीचे रह रहे थे।

योजना आयोग की नई शर्तों के मुताबिक शहरी इलाकों में रोजाना 28 रुपये से अधिक कमाने वाले और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन 22 रुपये से अधिक आय करने वाले लोग गरीब नहीं है!

इन सबको देखते हुए मस्तिष्क में एक विचार का आना स्वाभाविक है की कांग्रेस सरकार ने गरीबी आंकलन के खाद्यान स्तर को बदल के मौद्रिक स्तर क्यों कर दिया ?कहीं इसमें भी तो उसकी कोई साजिश नहीं , क्योंकि खाद्यान की कीमत तो घटती -बढ़ती  रहती है ,जबकि मौद्रिक स्तर अप्रभावित रहता है ,अर्थात सरकार कुछ न कर पाई तो गरीबों की थाली पे ही दे मारा !गरीबी आंकलन के लिए जिस ' Minimum Basket Of List' का निर्धारण सरकार ने स्वयं किया था ,आज वो उसी पे कायम नहीं है !

हाल ही में दिल्ली की मुख्यमंत्री माननीय शीला दीक्षित जी ने अन्नश्री योजना की शुरुआत करते हुए कहा कि वो गरीब परिवारों(औसतन 5 व्यक्ति के ) को अनाज के बदले में हर महीने 600 रुपए देंगी। मतलब एक व्यक्ति को खाने के लिए 4 रुपए प्रतिदिन... कितना भद्दा मज़ाक है शीला दीक्षित का क्यूकी 4 रुपए मे दो समय का खाना तो दूर एक कप चाय भी नहीं मिलती॥ उन्होनें कहा कि 600 रुपए में एक परिवार के लिए महीने भर का दाल, चावल और गेहूं तो मिल ही सकता है। लेकिन प्रश्न ये है की क्या इतने दाम खाद्य पदार्थ मिल जायेगा और अगर मिला भी तो उसकी गुणवत्ता क्या होगी ? लगता है मुख्‍यमंत्री साहिबा ने दो दिन पहले आयी भारत के लोगों की औसत आयु की रिपोर्ट नहीं पढ़ी। उसमें लिखा है कि भारत के पुरुष 54 और महिलाएं 56 वर्ष की आयु के बाद बीमार रहने लगते हैं। इसका प्रमुख कारण फलों का सही मात्रा में नहीं मिलना है। रिपोर्ट में लिखा है कि भारतीय बच्‍चों, महिलाओं और पुरुषों को पर्याप्‍त मात्रा में फल नहीं मिल पाते हैं। इस कारण विटामिन की कमी, कुपोषण, खून की कमी, हीमोग्‍लोबिन की कमी, आम है। शीला दीक्षित के बयान से साफ है कि दिल्ली के गरीबों को सिर्फ खराब क्‍वालिटी का दाल, चावल और रोटी खाने का अधिकार है। फल और हरी सब्जियों के बारे में वो सपने में भी नहीं सोच सकता !

इनसबके पश्चात् एक प्रश्न सरकार के मंसूबों पर उठना स्वाभाविक है की क्या सरकार वाकई में गरीबी मिटाना चाहती है या नित्य -नए आंकड़ों द्वारा जनता को भ्रमित करती है !

SORCE : NSSO , Planning Commission ,योजना हिंदी पत्रिका !