बुधवार, 30 नवंबर 2011

तेरा वैभव अमर रहे माँ हम दिन चार रहें न रहें.... राजीव भाई को श्रधांजलि




                                                                                          
                                                                                       
भाई राजीव दीक्षित जी के नाम स्वदेशी और आजादी बचाओ आन्दोलन  से हम सभी परिचित  हैं.. एक
अमर हुतात्मा, जिसने अपना पूरा जीवन मातृभाषा मातृभूमि को समर्पित कर दिया..आज उनका जन्मदिवस और पहली पुण्यतिथि भी है..आज ही के दिन ये अमर देशभक्त हमारे बिच आया था और पिछले साल हमारे बिच से आज ही के दिन राजीव भाई चले गए..अगर राजीव भाई के प्रारम्भिक जीवन में झांके तो जैसा की हम सब जानते हैं ,राजीव भाई एक मेधावी छात्र एवं  वैज्ञानिक भी थे..आज के इस भौतिकतावादी दौर में जब इस देश के युवा तात्क्षणिक हितों एवं भौतिकवादी साधनों के पीछे भाग रहा है, राजीव भाई ने राष्ट्र स्वाभिमान एवं स्वदेशी की परिकल्पना की नीव रखने के लिए अपने सम्पूर्ण जीवन को राष्ट्र के लिए समर्पित कर त्याग एवं राष्ट्रप्रेम का एक अनुकरणीय उदहारण प्रस्तुत किया..सार्वजनिक जीवन में आजादी  बचाओ आन्दोलन से सक्रीय हुए राजीव भाई ने स्वदेशी की अवधारणा एवं इसकी वैज्ञानिक  प्रमाणिकता को को आन्दोलन का आधार बनाया.. 
स्वदेशी शब्द हिंदी के " स्व" और "देशी" से मिलकर बना  है."स्व" का अर्थ है अपना और "देशी" का अर्थ है जो देश का हो.. मतलब स्वदेशी वो है "जो अपने देश का हो अपने देश के लिए हो" इसी मूलमंत्र को आगे बढ़ाते हुए राजीव भाई ने लगभग २० वर्षों तक अपने विचारो,प्रयोगों एवं व्याख्यानों से एक बौद्धिक जनजागरण एवं जनमत बनाने का सफल प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप हिन्दुस्थान एवं यहाँ के लोगो ने अपने खुद की संस्कृति की उत्कृष्ठता एवं वैज्ञानिक प्रमाणिकता को समझा और वर्षों से चली आ रही संकुचित गुलाम मानसिकता को छोड़ अपने विचारों एवं स्वदेशी पर आधारित तार्किक एवं वैज्ञानिक व्यवस्था को अपनाने का प्रयास किया..
वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के प्रबल विरोधी राजीव भाई ने अंग्रेजो के ज़माने से चली आ रही क्रूर कानून व्यवस्था से लेकर टैक्स पद्धति में बदलाव के लिए गंभीर प्रयास किये..अगर एक ऐसा क्षेत्र  लें जो लाल बहादुर शास्त्री जी के के बाद सर्वदा हिन्दुस्थान में उपेक्षित रहा तो वो है "गाय,गांव और कृषि " इस विषय पर राजीव भाई के ढेरो शोध और प्रायोगिक अनुसन्धान सर्वदा प्रासंगिक रहे हैं..वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की आड़ में पेप्सी कोला जैसी हजारों बहुराष्ट्रीय कंपनियों को, खुली लूट की छूट देने वाले लाल किले दलालों के खिलाफ राजीव भाई की निर्भीक,ओजस्वी वाणी इस औद्योगिक सामाजिक मानसिक एवं आर्थिक रूप से गुलाम भारत को इन बेड़ियों से बाहर निकलने का मार्ग प्रशस्त करती थी..मगर सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन की राह और अंतिम अभीष्ट  सर्वदा विरोधों और दमन  के झंझावातों से हो कर ही मिलता है..व्यवस्था परिवर्तन की क्रांति को आगे बढ़ाने में राजीव भाई को सत्ता पक्ष से लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कई बार टकराव झेलना पड़ना और इसी क्रम में यूरोप और पश्चिम पोषित कई राजनीतिक दल और कंपनिया उनकी कट्टर विरोधी हो गयी..
 अगर हम भारत के स्वर्णिम इतिहास के महापुरुषों की और नजर डाले तो राजीव भाई और विवेकानंद को काफी पास पाएंगे..जिस प्रकार विवेकनन्द जी ने गुलाम भारत में रहते हुए यहाँ की संस्कृति धर्म और परम्पराओं का लोहा पुरे विश्व के सामने उस समय मनवाया जब भारत के इतिहास या उससे सम्बंधित किसी भी परम्परा को गौण करके देखा जाता था, उसी प्रकार राजीव भाई ने अपने तर्कों एवं व्याख्यानों से भारतीय एवं स्वदेशी संस्कृति ,धर्म , कृषि या शिक्षा पद्धति  हर क्षेत्र में स्वदेशी और भारतीयता की महत्ता और प्रभुत्व  को पुनर्स्थापित करने का कार्य उस समय करने का संकल्प लिया जब भारत में भारतीयता के विचार को ख़तम करने का बिदेशी षड्यंत्र अपने चरम पर चल रहा था..काल चक्र अनवरत चलने के साथ साथ कभी कभी धैर्य परीक्षा की पराकाष्ठा करते हुए हमारे प्रति क्रूर हो जाता है..कुछ ऐसा ही हुआ और इसे देशद्रोही विरोधियों का षड्यंत्र कहें या नियति का विधान राजीव भाई हमारे बिच से चले गए..मगर स्वामी विवेकानंद जी की तरह अल्पायु होने के बाद भी राजीव भाई ने व्यक्तिगत एवं  सामाजिक जीवन के उन उच्च आदर्शों को स्थापित किया जिनपर चलकर मानवता धर्म देशभक्ति एवं समाज के पुनर्निर्माण की नीव रक्खी जानी है..
अब यक्ष प्रश्न यही है की राजीव भाई के बाद हम सब कैसे आन्दोलन को आगे ले जा सकते हैं. जैसा की राजीव भाई की परिकल्पना थी की एक संवृद्ध  भारत के लिए यहाँ के गांवों का संवृद्ध होना आवश्यक है..जब तक वो व्यक्ति जो १३० करोण के हिन्दुस्थान के आधारभूत आवश्यकता भोजन का प्रबंध करता वो खुद २ समय के भोजन से वंचित है,तब तक हिन्दुस्थान का विकास नहीं हो सकता..हम चाहें जितने भी आंकड़ों की बाजीगरी कर के विकास दर का दिवास्वप्न देख ले मगर यथार्थ के धरातल पर गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर..इसी व्यवस्था के खिलाफ शंखनाद के लिए मूल में ग्रामोत्थान  के तहत कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा ,कृषि के क्षेत्र में पारम्परिक कृषि को प्रोत्साहन देकर स्वरोजगार और आत्मनिर्भरता के अवसर बढ़ाने होंगे..शायद इस क्षेत्र में हजारों के तादात में स्वयंसेवक संगठन  और बहुद्देशीय योजनायें चलायी जा रही हैं,मगर अपेक्षित परिणाम न देने का कारण शायद सामान्य जनमानस में इस विचारधारा के प्रति उदासीनता और बहुरष्ट्रीय कंपिनयों के मकडजाल में उलझ कर रह जाना..
इस व्यवस्था के परिवर्तन के लिए हमे खुद के व्यक्तित्व में स्वदेशी के "स्व" की भावना का मनन करना होगा उसकी महत्ता को समझना होगा.."स्व" जो मेरा है और स्वदेशी "जो मेरे देश का है,मेरे देश के लिए है"..हमें अपने अन्दर की हीन भावना और उस गुलाम मानसिकता को ख़तम करना होगा, जो ये कहता है की अमेरिका यूरोप और पाश्चात्य देशों की हर चीज आधुनिक और वैज्ञानिक है और वहां की हर विधा हमारे समाज में प्रासंगिक है, चाहे वो नारी को एक ऐसे देश में ,नग्न भोग विलासिता के एक उत्पाद के रूप में अवस्थित करना हो ,जिस देश में नारी पूज्य,शील और शक्ति का समानार्थी मानी जाती रही है..हिन्दुस्थान शायद विश्व का एकमात्र देश होगा जहाँ आज तक गुलामी की भाषा अंग्रेजी बोलना, तार्किक और आधुनिक माना जाता है और मातृभाषा हिंदी,जिसका एक एक शब्द वैज्ञानिक दृष्टि से अविष्कृत है ,बोलना पिछड़ेपन की निशानी माना जाता है..ऐसी  गुलाम मानसिकता विश्व के शायद ही किसी देश में देखने को मिले..इसी गुलाम मानसिकता को तोड़ने का प्रयास राजीव भाई के आन्दोलन का मूल है...यदि देश,व्यवस्था या व्यक्ति की विचारधारा को पंगु होने से बचाना है तो हमे सम्पूर्ण स्वदेशी के विचारों पर चल कर ही सफलता मिल सकती है.. विश्व का  इतिहास गवाह है की किसी भी देश का उत्थान उसकी परम्परा और संस्कृति से इतर जा कर नहीं हुआ है..
व्यवस्था परिवर्तन की राह हमेशा कठिन होती है और बार बार धैर्य परीक्षा लेती है ..सफ़र शायद बहुत लम्बा हो सकता है कठिन हो सकता है मगर अंतत लक्ष्य  प्राप्ति की ख़ुशी,उल्लास और संतुष्टि उससे भी मनोरम और आत्म सम्मान से परिपूर्ण ..राजीव भाई ने एक राह हम सभी को दिखाई और उस पवित्र कार्य  लिए अपना जीवन तक होम कर दिया..आज उनके जन्मदिवस  और पुण्य तिथि के अवसर पर आइये हम सभी आन्दोलन में अपना योगदान निर्धारित करे और एक स्वावलंबी एवं स्वदेशी भारत की नीव रखके उसे विश्वगुरु के पड़ पर प्रतिस्थापित करने में अपना योगदान दे .....शायद हम सभी की तरफ से ये एक सच्ची श्रधांजली होगी राजीव भाई और उनकी अनवरत जीवनपर्यंत साधना को...

आशुतोष नाथ तिवारी 

सोमवार, 28 नवंबर 2011

बाबा "क्षमा" करना


बाबा "क्षमा" करना 
शायद किसी की तेज रफ़्तार ने 
उसके पाँव कुचल डाले थे 
खून बिखरा दर्द से कराहता 
आँखें बंद --माँ --माँ --हाय हाय ...
अपनी आदत से मजबूर 
जवानी का जोश 
मूंछे ऐंठता -खा पी चला था - मै
तोंद पर हाथ फेरता -गुनगुनाता 
कोई  मिल जाए 
एक कविता हो जाये  !!
दर्द देख कविता आहत हुयी 
मन रोया उसे उठाया 
वंजर रास्ता - सुनसान 
जगाया -कंधे पर उसका भार लिए 
एक अस्पताल लाया !
डाक्टर  बाबू मिलिटरी के हूस 
मनहूस ! क्या जानें दर्द - आदत होगी 
खाने का समय - देखा -पर बिन रुके 
चले गए -अन्य जगह दौड़े 
उपचार दिलाये घर लाये 
धन्यवाद -दुआ ले गठरी बाँधे 
लौट चले -कच्चे घर -
झोपडी की ओर............
एक दिन फिर तेज रफ़्तार ने 
मुझे रौंदा -गठरी उधर 
सतरंगी दाने विखरे -कंकरीली सडक 
लाठी उधर - मोटा चश्मा उधर 
कुछ आगे जा - कार का ब्रेक लगा 
महाशय आये - बाबा "क्षमा" करना 
जल्दी में हूँ -कार स्टार्ट --फुर्र ..ओझल 
"भ्रमर" का दिल खिल उठा 
“आश्चर्य” का ठिकाना रहा 
किसी ने आज प्यार से 'बाबा" कहा 
“क्षमा” माँगा -एक "गरीब" ब्राह्मण से 
वो भी "माया"-“मोह” के इस ज़माने में 
जहाँ कीचरण” छूना तो दूर 
लोगनमस्ते” कहने से कतराते 
'तौहीन' समझते हैं 
सब "एक्सक्यूज" है 
दिमाग पर जोर डाला 
अतीत में खोया 
आवाज पहचानने लगा 
माथे की झुर्रियों पर बोझ डाला 
याद आया - सर चकराया 
इन्हीभद्र पुरुष”  का पाँव था कुचला 
हमने कंधे पर था ढोया
और उस दिन था ये “बीज” बोया 
या खुदा -परवरदीदार 
अपना किया धरा 
बेकार--कहाँ जाता है ??
कभी कभी तो है काम आता ?
मै यादों में पड़ा 
थोडा कुलबुलाया ..रोया 
फिर हंसा 
अपनी किस्मत पर 
और गंतव्य पर चल पड़ा ....
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल "भ्रमर" 
२१.११.२०११ यच पी 
.१८-.०८ पूर्वाह्न 

रविवार, 27 नवंबर 2011

परतंत्र शिक्षातंत्र


नवजात शिशु असहाय अवस्था में होता है। उसका पालन-पोषण तो परिवार में माता-पिता के संरक्षकत्व में होता है किन्तु उसकी बौद्धिक चेतना का दीप शिक्षा के द्वारा ही प्रज्वलित होता है। शिक्षा के द्वारा ही बालक की शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है। इस प्रकार व्यंिक्तत्व के पूर्ण विकास के लिए शिक्षा अनिवार्य है। यह प्रगति का आधार है। जिस देश और समाज में अधिकांश जनसंख्या अशिक्षित होती है, वह देश और समाज संसार में पिछड़ा हुआ कहलाया जाता है। अतः शिक्षा न केवल व्यक्ति के व्यंिक्तत्व विकास के लिए वरन् समाज व देश की पूर्ण उन्नति के लिए भी उत्तरदायी है।
शिक्षा का उपर्युक्त लिखा महत्व सर्वविदित है और सर्वस्वीकार्य भी। तथापि आज वर्तमान शिक्षा प्रणाली जर्जर होती जा रही है। विभिन्न आयोगों का गठन इसकी स्थिति सुदृढ़ करने हेतु किया जाता रहा है, परन्तु परिणाम ‘सिफर’ ही है। यह कथन पाठकों को निःसन्देह विचित्र प्रतीत हो रहा होगा, क्योंकि आाधुनिक पाठ्यक्रम व ऊँची-ऊँची स्कूल इमारतें व उत्कृष्ट परिणाम इत्यादि का तिलिस्म शिक्षा के मूल उद्देश्य को अदृश्य कर चुका है और अस्थायी उन्नति की चकाचौंध भावी परिणामों को दृष्टिगत होने नहीं दे रही है। इस भ्रमित भंवर से बाहर निकलने के लिए अग्रलिखित तथ्यों का विश्लेषण आवश्यक है-
‘‘हमारा शिक्षा-तंत्र तीन स्तरों में विभाजित है- प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा। वर्तमान में प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षण हेतु भर्ती के लिए मुख्यतः दो द्वार प्रचलित हैं- विशिष्ट बीटीसी एवं बीटीसी। दोनों ही द्वार कई महाद्वारों पर ‘माया भंेट’ के पश्चात् ही खुलते हैं। बी. एड. की ही भाँति बीटीसी का भी बाजार सज चुका है। और नौकरी की आस में बोली लगाने वाले अपने-अपने स्थान पर विराजमान हैं। आशा वही पुरानी है- ‘बीटीसी के उपरान्त सुरक्षित भविष्य की गारण्टी’ अर्थात् ‘सरकारी नौकरी’।
मगर अफसोस! टीइटी व सीटीइटी सरीखे द्वारपाल कटोरा लिए इन द्वारों पर क्रूर रूप धारण किये सुशोभित हैं। प्रतिवर्ष नौकरी की दरकार करने वाले बेरोजगारों को इन परीक्षाओं हेतु माया की भंेट तो चढ़ानी ही होगी। और यदि किसी का कोटा एक वर्ष में ही पूरा हो गया अर्थात् यह परीक्षा उत्तीर्ण हो गई तो प्रसन्नचित मुद्रा पर विराम लगाइये और पाँच वर्षों के पश्चात् पुनः उस कटोरे में भेंट चढ़ाइये। यहाँ से आप साँप-सीढ़ी की प्रथम पंक्ति से प्रोन्नत हो द्वितीय पंक्ति पर आ गये। यहाँ आपको मिलेंगे ‘मेरिट’ रूपी ‘नाग देवता’, जो कब आपको डस लें, यह आपका भाग्य। इस पंक्ति में आगे बढ़ने की आपकी चाल घोर प्रतिक्षा के उपरान्त ‘रिक्तियों’ की सूचना के पश्चात ही आयेगी। और फिर आरम्भ होगा पुनः सरकारी कटोरे में भंेट चढ़ाने का सिलसिला। फॉर्म भरने से मेरिट लगने तक खूब धन-धान्य की वृष्टि विभिन्न विभागों पर आपके द्वारा की जायेगी। भाग्यवश आप मेरिट में आ जाते हैं तो तैयार हो जाइये दुर्गम स्थानों की सैर के लिए। ये वे गाँव व बस्तियाँ होंगी जिनकी कल्पना आपने अपने स्वपन में भी नहीं की होगी। स्थिति इतनी असहनीय हो जायेगी कि आप भागेंगे एक नये जुगाड़ के लिए जहाँ आप घर बैठकर इन कोर्सों व नौकरियों का आनन्द ले सकें। लेकिन यहाँ कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता जनाब! याद है ना माया की भेंट। चलिए, अब थोड़ी सी प्रसन्नता आपको नौकरी पाने की अवश्य होगी परन्तु साथ ही चिन्तनीय है कि उस अपरिचित व घर से इतनी दूर कैसे रहा जाये? विशेषतः लड़कियों के लिए तो यह अत्यन्त विकट समस्या है। यहाँ आवश्यकता है आपकी याददाशत के पुर्नाभ्यास की और चढ़ाइये भेंट माया की। यहाँ विभिन्न समस्याओं का एकमात्र समाधान माया ही है।’’
विचारणीय है कि इस प्रकार की परिस्थितियों से उपजित शिक्षक क्या अपने दायित्वबोध से परिचित रह पायेंगे? प्राथमिक विद्यालयों में अवनत शिक्षा स्तर इसी के परिणाम का प्रदर्शन कर रहा है। मिड डे मील में कीड़े, अनुपस्थित शिक्षक और ज्ञानविहीन कोरे बालक, ऐसा प्रतीत होता है मानो शिक्षक आपबीती का प्रतिशोध ले रहे हों।
अधिकांशतः इन प्राथमिक विद्यालयों में अभावग्रस्त बच्चे ही प्रवेश लेते हैं। भाग्य को प्रतिपल चुनौती देना इनकी दिनचर्या में सम्मिलित है। संघर्ष इनकी नियति है। तो क्या इन बच्चों को अच्छी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है? क्या गरीबी से आइएएस, पीसीएस की कल्पना व्यर्थ है? वस्तुतः निर्धनों के सुनहरे सपनों को तोड़ने का यह पाप अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा-तंत्र द्वारा ही किया जा रहा है।
शिक्षा का कोई भी स्तर हो प्राथमिक, माध्यमिक अथवा उच्च, एक समस्या सर्वव्यापी है- ‘अध्यापको द्वारा ट्यूशन के लिए बाध्य किया जाना’। ट्यूशन के लोभ में शिक्षकों के गिरते स्तर की पराकाष्ठा इनके द्वारा विद्यार्थियों का मानसिक, शारीरिक व आर्थिक शोषण है। प्रायः समाचार-पत्र शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के प्रति किये गये दुर्व्यवहार की घटनाओं से लबालब रहते हैं। शिक्षकों द्वारा अपने पेशे की गरिमा के परे छात्राओं का किया जाने वाला शारीरिक शोषण, शिक्षकों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करता है। कैसे निश्चिन्त हो जायें अभिभावक अपने बच्चों को शिक्षा के मंदिर में भेजकर?
विद्यालयों को शिक्षा का मंदिर कहना अब उचित न होगा। विद्यालय-कॉलेज अब एक ऐसा व्यापार हो गये हैं जिसमें मुनाफा निश्चित है, घाटे का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। विद्यालय में बच्चे का दाखिला मानो शेयर मार्केट में पैसा लगाने जैसा है। जितना बड़ा निवेश उतना मोटा फायदा। तथापि सुरक्षा, अनिश्चित। डोनेशन से लेकर छोटे-बड़े कार्यक्रमों के नाम पर लूट, स्कूल यूनिफॉर्म से किताबों तक पर लुटाई, कभी टूर पर जाने के लिए विवश किया जाना तो कभी किसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए इत्यादि। आखिर माता-पिता बच्चों को पढ़ायें तो पढ़ायें कैसे? प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर तक शिक्षा प्राप्ति का आधार योग्यता न रहकर पैसा हो गया है। जो जितना निवेश करेगा, उतना ही अधिक लाभान्वित होगा।
वर्तमान शिक्षा नीतियों ने शिक्षा की गुणवत्ता को भी संदिग्ध किया है। उदाहरण स्वरूप आठवीं कक्षा व दसवीं कक्षा में अब कोई भी विद्यार्थी अनुत्तीर्ण नहीं होगा। बेसिक स्तर पर ही यदि विद्यार्थी के फेल न होने के डर को संरक्षण मिल जायेगा तो भला विद्यार्थी के लिए परिश्रम का क्या महत्व रह जायेगा? दसवीं कक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी को पास करने का परिणाम हम देख ही चुके हैं। ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश के लिए होती मारामारी ने भ्रष्टाचार को उड़ान हेतु विस्तृत आकाश प्रदान कर दिया। अधिकतम अंक प्राप्तकर्ताओं को प्रवेश प्राप्त हो गया परन्तु कम अंक वाले विद्यार्थियों को अंधकारमय भविष्य ने भोग लगाया। यदि वे विद्यार्थी दसवीं मंे ही अनुत्तीर्ण हो जाते तो कम से कम उनके पास पुनः परिश्रम कर अच्छे अंक प्राप्त करने का अवसर सुरक्षित रहता । यद्यपि यह निर्णय विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं को कम करने हेतु लिया गया था परन्तु इसके पश्चात् भी स्थिति यथावत् रही। कहीं प्रवेश न मिल पाने की कुण्ठा, अवसाद व हीनभावना ने उन्हें पुनः एक ही मार्ग की ओर प्रेरित किया। पलायनवादी प्रवृत्ति के विद्यार्थियों ने आत्महत्या के मार्ग का ही चयन किया। बहरहाल स्थिति अधिक विकट अवश्य हो गई। प्रवेश न मिल पाने के कारण घर खाली बैठने, छोटे-मोटे रोजगार में लगने व वैकल्पिक कोर्स करने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हो गई। इस शिक्षा नीति ने बहुत से विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा से वंचित तो किया ही, साथ ही निराशा ने उन्हें अपराध की ओर प्रवृत भी किया।
इन चाणक्य नीतियों की भला और क्या तारीफ की जाये। इन्होंने बेरोजगारी की परिभाषा का स्वरूप ही परिवर्तित कर दिया है। ‘‘शिक्षित वर्ग जो रोजगार प्राप्त नही कर पाता है, बेराजगार कहलाता है।’ इस शिक्षा नीति के अन्तर्गत न तो बालक शिक्षित हो सकेगें और न ही अच्छी नौकरी की आकांक्षा रख सकेंगे। वाह समाधान!
उच्च स्तरीय शिक्षा का आलम देखिए- पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने देश में शोध और प्रबंधन से जुड़े शीर्ष संस्थानों आइआइटी और आइआइएम की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगाते हुए कहा, ‘‘विद्यार्थियों की गुणवत्ता के कारण ही हमारे आइआइटी और आइआइएम संस्थान उत्कृष्ट बने हुए हैं।’’ रमेश के अनुसार, ‘‘संस्थान नहीं, यहाँ के छात्र विश्वस्तरीय हैं। सरकारी तंत्र की मकड़जाल के चलते भारत विश्वस्तरीय शोध केन्द्र विकसित नहीं कर पाता है।’’
वस्तुतः माननीय रमेश जी की यह कोई कल्पना नही वरन् यर्थाथ का वह आइना जिसकी स्वीकार्यता लज्जित करती है। विश्वविद्यालयों व सम्बद्ध महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की उपस्थिति रजिस्टर में भले ही 75ः से अधिक है परन्तु वास्तविकता यह है कि विद्यार्थियों की आधे से अधिक संख्या ऐसी होती है जो परीक्षा देते समय ही कॉलेज के दर्शन करते हैं। नियमित उपस्थिति तो असंभव है। और जो कॉलेज में नियमित रूप से आने वाले विद्यार्थी हैं उन्हें प्रायः दूसरी कक्षाओं के बाहर लड़कियांे को ताकते हुए पाया जा सकता है।
यह सब निकृष्ट होते शिक्षा-तंत्र की मात्र कुछ झलकें हैं। यदि गम्भीरतापूर्वक व ईमानदारी का सानिध्य लेते हुए शिक्षा-तंत्र की वास्तविक स्थिति का अध्ययन किया जाये तो यूजीसी, एनसीटीई, सीबीएससी, आइसीएससी, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, स्कूल-कॉलेज, कोचिंग इंस्टीट्यूट इत्यादि प्रत्येक स्तर पर भ्रष्टाचार की होड़ लगी है। यह फहरिस्त इतनी लम्बी है कि इसके हर एक शब्द का अपना एक उपन्यास है। विस्मयबोधक है कि इस शिक्षा-तंत्र से जूझते हुए भी विद्यार्थी अपना विश्वास इसमें बनाये हुए हैं और उज्ज्वल भविष्य के लिए आशातीत हैं। निःसन्देह उम्मीद पर दुनिया कायम है। ईश्वर से प्रार्थना है कि इस उम्मीद की लौ यूँ ही रोशन रहे। परन्तु यह भी सच है कि ‘‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए’’। अब सटीक समाधान खोजा जाना नितांत आवश्यक है। अन्यथा सम्भावना है कि विश्वास की डोर छूटते ही काला भविष्य निर्दोष व निराश विद्यार्थियों को जुर्म की राह न दिखा दे। और गाँधी, नेहरू, सुभाष, भगतसिंह आदि जैसे महान व्यंिक्तत्वों के सपनों के भारत की भावी पीढ़ी उनके बलिदान को अज्ञानतावश कलंकित कर जाये। विषय वास्तव में गम्भीर है।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

किस घर बैठूं -किसका खाऊँ ?


किस घर बैठूं -किसका खाऊँ ?
हाथी मेरा खाता पीता
सुस्त चले – रहता बस सोता
अश्वमेध का सपना आया
घोडा चुन-चुन लाया
हाथी पर चढ़ कभी परिक्रमा
जब पूरी ना हो पायी
अश्वशक्ति – कुछ मंत्री- तंत्री
ले उधार तब-इच्छा पूरी कर पायी
सूरज ढलने को आया जब
अँधेरा ना हो जाए !
इसी लिए घर आग लगाया
उजाला -कुछ दिन रह जाए !!
उत्तर हाथी, उत्तर काशी
उत्तर शिला -उत्तर लोढ़ा
चार धाम- मन में आया
साँसें अटकी -जीवित क्यों हूँ
संसद में ला पास करा लूं
अपनी मूरति – कुछ गढ़वा के
चौराहे – मंदिर -में ला -दूँ
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उसका ख्याल ये देख -देख कर
दल-दल मै फंसता जाऊं
अभी एक हैं भाई मेरे
जाऊं थोडा मिल आऊँ !
कल वे बँटे दीवारों होंगे
किस घर बैठूं – किसका खाऊँ ?
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बार्डर पर जाते ही भैया
एक -मुछंडे ने – रोका !
“बौने” छोटे- वहां बहुत हैं
तेरा “कद” अब भी ऊंचा !!
वीसा -पासपोर्ट -ले आओ
बंट जाए- तो फिर- घर जाओ
अब वो गाँव देश ना प्यारा
अब ये है पर-देश
मारा मारी -विधान -सभा में
नहीं मिला सन्देश ??
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दो रोटी खाकर मै जीता
कीचड़ वाला पानी भाई
सूखे कुएं का – अब तक पीता
ये कंकाल लिए अपना मै
कैसे पासपोर्ट बनवाऊँ ?
मगरमच्छ हैं -गिद्ध बहुत हैं
भय है- ना नोचा जाऊं !
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मन चाहे पत्थर की मूरति से
मिल मै – कुछ रो आऊँ
हाड मांस का पुतला अपना
आंसू – थोडा दिखलाऊँ
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इस आंसू में शक्ति बहुत है
थोडा उनको समझाऊँ !
जो सजीव “पाथर” हैं मिल लूं
आँख मिला के -बतलाऊँ
जहर भरा है जिनके रग में
आंसू थोडा- मिला के आऊँ !
मुई खाल की सांस की गर्मी से
थोडा मै पिघलाऊँ !
मन में उनके जो इच्छा है
मार -उसे थोडा मै पाऊँ !
यहाँ पे राज करेंगी मौसी
वहां पे मामा कंस !
विद्वानों को तहखाने कर
मिलकर लेंगे डँस !!
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भ्रमर ५
यच पी

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

एयरलाइंस क्षेत्र में सरकारी साजिश ,किंगफिशर बेल आउट के दौर में दम तोड़ता किसान ..



पिछले दिनों किंगफिशर एयरलाइंस को तेल कंपनियों ने बकाया राशी के भुगतान न करने के कारण, तेल देना बंद कर दिया और कंपनी को कई उड़ाने रद्द करनी पड़ी..हालत यह है की आज कंपनी पर लगभग ७००० करोड़ रूपये का कर्ज है या दूसरे शब्दों में कहे तो किंगफिशर एयरलाइंस  दिवालिया होने के कगार पर पहुच गयी है..लगभग ७० उड़ाने रोज रद्द हो रही है और कई कम आवाजाही के मार्गों पर कम्पनी ने अपना सञ्चालन स्थगित कर दिया है..अब प्रश्न ये है की, क्या कंपनी रातो रात दिवालिया होने के कगार पर पहुच गयी या प्रबंध तंत्र को पहले से इसकी जानकारी थी और जानबूझ कर कंपनी ने आने वाली परिस्थितियों के लिए जरुरी कदम नहीं उठाये..आखिर घाटे में एयरलाइंस को चलाकर दीवालिया बनाने की करार तक आने देने के पीछे क्या कारण रहे?
क्यूकी व्यापार की दुनिया के बादशाहों में एक विजय माल्या बिना किसी फायदे के ये एयरलाइंस के घाटे का सौदा मोल लेंगे आसानी से गले नहीं उतरता..
अब हम इस दीवालिया कंपनी के मालिक विजय माल्या के बारे में देखें तो अपनी रंगीन मिजाजी और आलिशान पार्टियों पर पानी की तरह पैसा बहाने वाला ये उद्योगपति हर साल खुबसूरत माडलों  के नंगे कैलेंडर बनवाने में करोडो रूपये उडाता है..इसके अलावा व्यापार जगत की ये हस्ती यूनाइटेड ब्रिवरीज नामक कंपनी का मालिक है और भारत में बिकने वाली हर दूसरी बियर इनकी फैक्ट्री से निकलती है..
कई स्टड फार्मो के मालिक विजय माल्या, आई.पी.एल में टीम का मालिकाना हक़ भी रखते हैं और भारत  और विश्व के सर्वाधिक धनी व्यक्तियों में एक गिने जाते हैं..
अभी हाल फ़िलहाल में इनका नया नवअन्वेषण था भारत में फार्मूला वन रेस .इस रेस टीम में इनका मालिकाना हक़ है.. प्रश्न भी यही से उठता है की एयरलाइंस के डूबने का सिलसिला पिछले साल से ही शुरू हो गया था मगर उड़ाने रद्द होने का सिलसिला,तेल कंपनियों का सप्लाई रोकने का फैसला फार्मूला १ के बाद ही क्यों आया..कहीं ऐसा तो नहीं की फार्मूला वन के आयोजन पर माल्या की एयरलाइंस के डूबने से संकट आ सकता था..शायद तकनीकी रूप से रेस हो भी जाती तो माल्या के ऊपर नैतिक दबाव होता..
अब माल्या की कंपनी को कर्जे से उबारने के लिए बेल आउट पैकेज की बात मीडिया और सत्ता के गलियारों में बहुत जोर शोर से उठाई जा रही है..मंत्रियों और बैंको की बैठको का दौर शुरू हो गया, की कैसे अरबो खरबों के मालिक माल्या की आर्थिक सहायता की जाये..थोड़े ही समय में इसके परिणाम भी आने शुरू हो गए, कंपनियों ने बिना बकाया वसूले तेल की सप्लाई शुरू कर दी..किंगफिशर के शेयरों में तेजी आनी शुरू हो गयी और परदे के पीछे मनमोहन जी के सिपहसालारों ने माल्या को मालामाल करने की तरकीबे भिड़ानी शुरू कर दी..शायद माल्या को प्रत्यक्ष रूप से १०-१५ हजार करोड़ की आर्थिक सहायता दे दी जाती मगर आने वाले चुनावों को देखते हुए, शायद कांग्रेस सरकार ने इस फैसले को टाल दिया है क्यूकी अब जनता के हिसाब मांगने की बारी है की सैकड़ो कंपनियों के खरबपति मालिक पर ये मेहरबानी क्यों????
अगर हम इस समस्या के  मूल में जा के देखें तो काफी हद तक ये बातें पूर्वनिर्धारित लग रही है..एक किंगफिशर एयरलाइंस के बंद हो जाने से विजय माल्या की आर्थिक सेहत पर ज्यादा से ज्यादा  उतना ही प्रभाव पड़ेगा जितना साल के अंत में एक बार आय कर कटने से एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति पर पड़ता  है..अगर इन परिस्थितियों को व्यापक स्तर पर देखें तो आज इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया विलय होने के बाद भी  दिवालिया होने के कगार पर है बाकी एयरलाइंस में भी इक्का दुक्का छोड़ दे तो सबकी हालत खस्ता है..एयरलाइंस के किरायों पर कोई विनियमन नहीं है..और सभी जानते हैं की ये सारी परिस्थितियां सरकार द्वारा प्रायोजित गलत नीतियों के कारण उत्पन्न हुई है..यहाँ ध्यान देने योग्य बात ये है  एयरलाइंस  सेक्टर में विदेशी कंपनियों की पैठ अभी तक नहीं बनी है..
ये वही मनमोहन सिंह जी है जिनकी १९९१ में शुरू की गयी नीतियों के कारण आज हमारे घर के तेल,साबुन,टीवी से लेकर कार,पंखा या दैनिक प्रयोग की हर बस्तु बिदेशी हो गयी यहाँ तक की अब सब्जियों को भी बिदेशी हाथो में दिया जा रहा है बेचारा किसान सल्फास खा कर मर रहा रहा है..खैर हिन्दुस्थान में मरता किसान ही है, कोई इटली का  युवराज नहीं इसलिए ये बड़ी बात नहीं हमारे प्रधानमन्त्री  जी के लिए..
जो बात बड़ी है वो ये की तेल से लेकर कार  बेचने वाली बिदेशी कम्पनियाँ अब तक एयरलाइंस  सेक्टर में कब्ज़ा क्यों नहीं कर पाई??यही माननीय मनमोहन जी और सोनिया जी की चिंता का विषय है..विशेषकर यूरोप की कम्पनियाँ हिन्दुस्थान के इस सेक्टर पर नजर गडाए बैठी है.. अब मनमोहन मंडली से अच्छा राजनैतिक सहयोग कही मिलेगा नहीं तो सारी एयरलाइंस को घाटे में दिखा कर बिदेशी एयरलाइंस  को भारत में आने का मौका दिया जाये और इस बाजार पर भी बिदेशी कब्ज़ा..बेशक इन सब के लिए कुछ मेहनताना हर बार की तरह कांग्रेस नेताओं के स्विस अकाउंट में भेज दिया जायेगा..इस संशय को इंडियन एयरलाइंस  के लगातार घाटे और मनमोहन के मंत्रियों की तिहाड़ यात्रा से और भी बल मिलता है..
इन सब के बिच एक सामान्य मध्यमवर्गीय आदमी मनमोहन और सोनिया जी की सरकार के लिए एक स्वयं ही एक उत्पाद बन कर रह गया है जिसका इस्तेमाल फायदे और मूल्य संवर्धन के लिए आवश्यकता अनुसार कर लिया जाता है...नोयडा में किसानो से जमीन ली जाती है औद्योगीकरण और रोजगार के नाम पर पर  वहां विजय माल्या की कारे दौडाई जाती है और राबर्ट वढेरा जैसे खरबपति उस पर दांव लगाते हैं..सिर्फ कुछ गिने चुने खरबपतियों की ऐयाशी  के लिए किसानो से जमीन ले कर रेसिंग ट्रैक बनाया जाता है और किसान भूख के मारे आत्महत्या करता है...अगर अपना हक मांगने लायक जान बची रहती है तो विश्व बैंक और यूरोप की पालतू सरकार गोलियां चलवाकर उनका मुंह बंद कर देती है...हिन्दुस्थान में अगर गरीब किसान या एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति  दिवालिया होता है तो उसके सामने आत्महत्या का ही रास्ता होता है मगर विजय माल्या जैसा खरबपति दिवालिया हुआ तो अरबो खरबों ले कर हमारे प्रधनमंत्री जी उसके चौखट पर पहुच जाते हैं.अगर ये बेल आउट हमारे प्रधानमंत्री जी आत्महत्या करते किसानो पर खर्च करते तो मैं यकीन से कह सकता हूँ की हिन्दुस्थान में कोई भी किसान आत्महत्या नहीं करता..शायद ये बेल आउट उस मध्यमवर्गीय रोजगार करने वाले व्यक्ति का भी कुछ भला कर सकता है जिसे रोज महंगाई और पेट्रोल की बढ़ी  कीमतों से जूझना पड़ता है...मगर सामान्य जनता पर महंगाई के  बढे बोझ को सही ठहराने  के लिए मंत्रियों की फ़ौज खड़ी हो जाती है और वही फ़ौज माल्या जैसे उद्योगपतियों के लिए हमारे टैक्स का पैसा पानी की तरह बहाने में एक बार भी विचार नहीं करती..इससे इस आशंका को समर्थन मिलता है वर्तमान सरकार निजी हितों के कुछ गिने चुने भ्रष्ट उद्योगपतियों के साथ गठबंधन कर के खुली लूट कर रही है...

एयरलाइंस  सेक्टर की ये उठापठक भी इसी लूट का हिस्सा है..कोई आश्चर्य नहीं की जैसे इटली के कई बैंको को हिन्दुस्थान में अकस्मात प्रवेश दे दिया गया आने वाले दिनों में सरकारी एयरलाइंस बेच दी जाये , इटली और यूरोप की विमानन कंपनिया भारतीय आकाश पर कब्ज़ा किये बैठी हों और हमारे प्रधनमंत्री जी उदारीकरण से होने वाले फायदे का दिवास्वप्न दिखा रहे हों....


बुधवार, 16 नवंबर 2011


मनुष्य कौनमनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत अन्यों के सुख दुःख और हानि-लाभ को समझे!! अन्यायकारी बलवान से भी  डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे !! इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं की - कि चाहे वे महा अनाथनिर्बल और गुणरहित हों -उन कि रक्षाउन्नतिप्रियाचर्ण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथमहाबलवान और गुणवान भी हो तथापि उसका नाशअवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात जहाँ तक हो सके वहां तक अन्यायकारीओं के बल की हानि और न्यायकारिओं के बल की उन्नति सर्वथा किया करे!!
इस काम में चाहे उस को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त होचाहे प्राण भी भले ही जावेंपरन्तु इस मनुष्य रूप धर्म से पृथक कभी  होवे !!
                          ------ महर्षि दयानंद सरस्वति
 अमर बलिदानी वीर नाथूराम गोडसे 

मृत्यु पत्र - अमर बलिदानी वीर नाथूराम गोडसे
प्रिय बन्धो चि. दत्तात्रय वि. गोडसे मेरे बीमा के रूपिया आ जायेंगे तो उस रूपिया का विनियोग अपने परिवार के लिए करना ।
रूपिया 2000 आपके पत्नी के नाम पर , रूपिया 3000 चि. गोपाल की धर्मपत्नी के नाम पर और रूपिया 2000 आपके नाम पर । इस तरह से बीमा के कागजों पर मैंने रूपिया मेरी मृत्यु के बाद मिलने के लिए लिखा है ।
मेरी उत्तरक्रिया करने का अधिकार अगर आपकों मिलेगा तो आप अपनी इच्छा से किसी तरह से भी उस कार्य को सम्पन्न करना । लेकिन मेरी एक ही विशेष इच्छा यही लिखता हूँ ।
अपने भारतवर्ष की सीमा रेखा सिंधु नदी है जिसके किनारों पर वेदों की रचना प्राचीन द्रष्टाओं ने की है ।वह सिंधु नदी जिस शुभ दिन में फिर भारतवर्ष के ध्वज की छाया में स्वच्छंदता से बहती रहेगी उन दिनों में मेरी अस्थि छोटा सा हिस्सा उस सिंधु नदी में बहा दिया जाएँ ।
मेरी यह इच्छा सत्यसृष्टि में आने के लिए शायद ओर भी एक दो पीढियों का समय लग जाय तो भी चिन्ता नहीं । उस दिन तक वह अवशेष वैसे ही रखो। और आपके जीवन में वह शुभ दिन न आया तो आपके वारिशों को ये मेरी अन्तिम इच्छा बतलाते जाना । अगर मेरा न्यायालीन वक्तव्य को सरकार कभी बन्धमुक्त करेगी तो उसके प्रकाशन का अधिकार भी मैं आपको दे रहा हूँ ।
मैंने 101 रूपिया आपकों आज दिये है जो आप सौराष्ट्र सोमनाथ मन्दिर पुनरोद्धार हो रहा है उसके कलश के कार्य के लिए भेज देना ।
वास्तव में मेरे जीवन का अन्त उसी समय हो गया था जब मैंने गांधी पर गोली चलायी थी। उसके पश्चात मानो मैं समाधि में हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि गांधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाएँ , जिसके लिए मैं
उनकी सेवा के प्रति और उनके प्रति नतमस्तक हूँ , किन्तु देश के इस सेवक को
भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि का विभाजन करने का अधिकार नहीं था
मैं किसी प्रकार की दया नहीं चाहता और नहीं चाहता हूँ कि मेरी ओर से कोई दया की याचना करें । अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना अगर पाप है तो मैं स्वीकार करता हूँ कि वह पाप मैंने किया है । अगर वह पुण्य है तो उससे जनित पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है । मुझे विश्वास है की मनुष्यों के द्वारा स्थापित न्यायालय से ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमें मेरे कार्य को अपराध नहीं समझा जायेगा । मैंने देश और जाति की भलाई के लिए यह कार्य किया है। मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियों के कारण हिन्दुओं पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए। मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य 'नीति की दृष्टि ' से पूर्णतया उचित है । मुझे इस बात में लेशमात्र भी सन्देह नहीं की भविष्य में किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेंगे तो वे मेरे कार्य को उचित ठहराएंगे ।
कुरूक्षेत्र और पानीपत की पावन भूमि से चलकर आने वाली हवा में अन्तिम श्वास लेता हूँ । पंजाब गुरू गोविंद की कर्मभूमि है । भगत सिंह , राजगुरू और सुखदेव यहाँ बलिदान हुए । लाला हरदयाल तथा भाई परमानंद इन त्यागमूर्तियों को इसी प्रांत ने जन्म दिया । उसी पंजाब की पवित्र भूमि पर मैं अपना शरीर रखता हूँ । मुझे इस बात का संतोष है । खण्डित भारत का अखण्ड भारत होगा उसी दिन खण्डित पंजाब का भी पहले जैसापूर्ण पंजाब होगा । यह शीघ्र हो यही अंतिम इच्छा..........................................
 “मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धु नदी में ही उस दिन प्रवाहित करना जब सिन्धु नदी एक स्वतन्त्र नदी के रूप में भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमें कितने भी वर्ष लग जायें, कितनी ही पीढ़ियाँ जन्म लें, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना…”।
 नाथूराम गोड़से और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी राख उनके परिवार वालों को नहीं सौंपी गई थी। जेल अधिकारियों ने अस्थियों और राख से भरा मटका रेल्वे पुल के उपर से घग्गर नदी में फ़ेंक दिया था। दोपहर बाद में उन्हीं जेल कर्मचारियों में से किसी ने बाजार में जाकर यह बात एक दुकानदार को बताई, उस दुकानदार ने तत्काल यह खबर एक स्थानीय हिन्दू महासभा कार्यकर्ता इन्द्रसेन शर्मा तक पहुँचाई। इन्द्रसेन उस वक्त “द ट्रिब्यून” के कर्मचारी भी थे। शर्मा ने तत्काल दो महासभाईयों को साथ लिया और दुकानदार द्वारा बताई जगह पर पहुँचे। उन दिनों नदी में उस जगह सिर्फ़ छ्ह इंच गहरा ही पानी था, उन्होंने वह मटका वहाँ से सुरक्षित निकालकर स्थानीय कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर ओमप्रकाश कोहल को सौंप दिया, जिन्होंने आगे उसे डॉ एलवी परांजपे को नाशिक ले जाकर सुपुर्द किया। उसके पश्चात वह अस्थि-कलश 1965 में नाथूराम गोड़से के छोटे भाई गोपाल गोड़से तक पहुँचा दिया गया, जब वे जेल से रिहा हुए। फ़िलहाल यह कलश पूना में उनके निवास पर उनकी अन्तिम इच्छा के मुताबिक सुरक्षित रखा हुआ है।