सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

अमेरिकी फंदे में दम तोड़ता पेट्रो राष्ट्रवाद और इश्लामिक स्तम्भ :



विगत दिनों एक खबर मीडिया में जोर शोर से आई की कर्नल मुअम्मर गद्दाफी  की उसी के देश के 
बिद्रोहियों ने निर्मम हत्या कर दी.दरअसल कर्नल मुअम्मर गद्दाफी की हत्या अमेरिकी और पश्चिमी देशो के आर्थिक अतिक्रमण की एक अगली कड़ी है.. जिसमे अमीरीकी कंपनियों का तेल का खेल अभीष्ट है..
अमरीका और उसके मित्र देशों  के इतिहास पर नजर डाले तो अपने आर्थिक साम्राज्यवाद एवं मंदी को दूर करने के लिए हर समय सुविधा के अनुसार सत्ताएं बनायीं और फिर उनसे समय समय पर युद्ध करके  अपना आधिपत्य साबित किया .. अगर विश्लेषण करे तो प्रथम एवं द्वितीय दोनों विश्व युद्ध का कारण आर्थिक था जो यूरोप और अमेरिका की आर्थिक मंदी को दूर करने के लिए किया गया...
सोवियत रूस के विघटन के बाद अमरीका की गिद्ध  दृष्टि भारत और तेल उत्पादक देशों पर लगी हुए है..इसी उद्देश्यपूर्ति के लिए उसने लादेन जैसा भस्मासुर पैदा किया..हुस्नी की मुबारक की सत्ता को समर्थन दिया..तो कभी सद्दाम हुसैन के साथ भी गलबहियां डाली...अब धीरे धीरे पेट्रो राष्ट्रवाद और इश्लामिक जेहाद की आँच अमेरिका के आर्थिक,सामरिक और सामाजिक हित झुलसने लगे तो अमेरिका ने अपनी पुरानी मक्कारी दिखाई .

अगर पिछले ३-४ उदाहरण  ले तो इश्लामिक जेहाद का चेहरा बन चुका ओसामा बिन लादेन इसी अमरीकी दिमाग की उपज था और जब अमेरिका की रूस को साधने के लिए बनायीं गयी इस जेहादी मिसाइल ने अपना रुख अमरीका की ओर ही कर लिया तो अमरीका ने अफगानिस्तान से युद्ध छेड़ दिया..ये भी एक इत्तफाक ही कहा जायेगा की इन सारे घटनाक्रम के बिच में यूरोप और अमेरिका में मंदी के बदल छाने लगे थे ..ओसामा बिन लादेन को मारने या ९/११ के जिम्मेदार लोगो के सफाए  लिए सीआईए और नाटो का एक सिमित ख़ुफ़िया आपरेशन ही काफी था मगर  अफगानिस्तान को युद्ध को १० साल से ज्यादा खिंचा गया..
और शायद इसमें कोई संशय नहीं की कुछ सालो बाद किसी विकिलीक्स के खुलासे में ये तथ्य सामने आये की कही पर्ल हार्बर की तरह अमरीका पर किया गया ९/११ का हमला भी अमरीका के सहयोग से ही जेहादियों ने रचा हो....
अगर हम देखें तो अमरीका के पिछलग्गू "NATORIOUS NATO" गठबंधन में अमरीका सबसे ज्यादा हथियार आपूर्ति करता है..और अमरीका की हथियार उद्योग से लगभग १०० से ज्यादा  छोटे बड़े उद्योग जुड़े हुए है..कहीं न कहीं इन युद्धों का लम्बा खीचना कम से कम अमरीका के लिए दोहरे फायदे का सौदा है तेल के खेल एवं वैश्विक राजनीती  में दादागिरी और घरेलू मोर्चे पर मंदी के असर को कम करने का फायदा..
ठीक इसी प्रकार सद्दाम हुसैन की हत्या करने के लिए इराक को तबाह करने या मासूम जनता पर बम गिराने की जरुरत नहीं थी मगर अमरीका ने अपने अजेंडे पर चले हुए ये किया..ध्यान रहे, ये वही सद्दाम हुसैन है जो कभी रोनाल्ड रीगन के लाडले हुआ करते थे,उस समय न ही संयुक्त राष्ट्र संघ और न ही दोगले चरित्र वाले अमरीका को इराक के जनसंहार या मानवाधिकार की सुध थी..अमरीका के सहयोग से इसी सद्दाम ने इरान पर भी हमला बोल दिया ..मगर जब से सद्दाम ने इराक में और  कुवैत के मामले में में अमरीकी हितो की अनदेखी करनी शुरू की इस इस्लामिक तानाशाह की उलटी गिनती शुरू हो गयी जो इराक में उनकी फाँसी पर ख़तम हुआ..
इसी प्रकार वो हुस्नी  मुबारक हो या मुअम्मर गद्दाफी इस्लाम के एक एक स्तंभों को अमरीका अपने व्यापारिक हितो के लिए ख़तम करता जा रहा है..या जो थोड़े बहुत बचे हैं उन्होंने सउदी अरब जैसा अमरीका का आधिपत्य स्वीकार कर लिया..अब शायद अमरीका के अगले निशाने पर इरान होगा जो की एकमात्र देश बचा है जो अमरीका का प्रतिरोध कर रहा है...
हालाँकि अमरीका ने जिन इश्लामिक तानाशाहों या जेहादियों को ठिकाने लगाया है चाहे वो सद्दाम हो या लादेन या गद्दाफी उनके नरसंहार और अत्यचारों की एक लम्बी फेरहिस्त है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता मगर इन अत्याचारों की सुध आज सालो बाद दुनिया में पेट्रोल के ख़तम होते भण्डारो के साथ ही अमरीका को आ रही है और विशेषतः उन देशों की जहाँ पेट्रोल की प्रचुरता है ये अमरीका की दोगली मानसिकता का परिचायक है..शायद गद्दाफी से क्रूर तानाशाह और भी मिल जायेंगे विश्व के कई देशों में मगर वहां का मानवाधिकार UN या अमरीका को नहीं दिखता क्यूकी वहां तेल के कुँए नहीं हैं...
हिन्दुस्थान के परिपेक्ष्य में देखें तो इन इश्लामिक दुर्गो का गिरना फिलहाल राहत देने वाला ही है चाहे लादेन हो या मुअम्मर गद्दाफी कोई भी भारत का मित्र नहीं रहा ...मुअम्मर गद्दाफी की कश्मीर पर नीति सर्वविदित थी..
अमरीका यदा कदा पाकिस्तान को कश्मीर में शह दे कर अपनी हथियार उद्योग को जीवित रखा है...वैसे भी हिन्दुस्थान में अमरीका को खुली लूट  की छूट अमरीकी  बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दे कर भारत सरकार ने  फिलहाल अपना गला अमरीकी फंदे से बचा रखा है..मगर इसमें कोई संशय नहीं की तेल का खेल ख़तम होने और सारे इश्लामिक स्तंभों  के सफाए के बाद अमरीका की दृष्टि भारत की और लगे..इसमें कोई आश्चर्य नहीं  यदि हिन्दुस्थान को कांग्रेसी लूट से छूट मिले और कोई राष्ट्रवादी नायक आगे आये तो अमरीका को कश्मीर और मणिपुर में मानवाधिकार हनन के दौरे आने लगे और हिन्दुस्थान को अरब नायको की तरह अमरीका जैसे कुटिल देश से दोस्ती की कीमत अफगानिस्तान या पाकिस्तान की तरह चुकानी पड़े....

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