शनिवार, 2 जुलाई 2011

इन्द्रधनुष -----कहानी---- डा श्याम गुप्त ...






                                                                                 
( 'न्द्नुष'--- विभिन्न स्थितियों व भावों में आपके सामने रहता है सदा .....आसमान पर वर्षा की बूंदों में, फुब्बारों में, सुन्दरी की नथ के- कानों के लटकन के हीरों में,  देवालयों के झूमरों के शीशों में,  सपनों में, यादों में ---मन को तरंगित प्रफुल्लित करता हुआ ....पर आप उसे  छू नहीं सकते .....ऐसा ही एक इन्द्रधनुष यहाँ प्रस्तुत है---स्त्री-पुरुष मित्रता का  ...)
  

सुमि, तुम ! 

के.जी. ! अहो भाग्य ,क्या तुमने आवाज़ दी ?

नहीं |
मैंने भी नहीं | फिर ?
हरि इच्छा , मैंने कहा |
वही खिलखिलाती हुई उन्मुक्त हंसी |
चलो , वक्त मेहरवान तो क्या करे इंसान | कहाँ जाना है, सुमि ने पूछा |
मुम्बई, 'राशी' की कोंफ्रेंस है | और तुम ?
मुम्बई,पी जी परीक्षा लेने | मेडिकल कालेज के गेस्ट हाउस में ठहरूंगी , और तुम |
मेरीन -ड्राइव पर |

सागर तीरे !... पुरानी आदत  गयी नहीं !
नहीं भई, रेस्ट हाउस है, चर्च गेट पर | चलो तुम्हारे साथ मेरीन-ड्राइव पर घूमने का आनंद लेंगे, पुरानी यादें ताजा करेंगे | रमेश कहाँ है ?
दिल्ली, बड़ा सा नर्सिंग होम है, अच्छा चलता है |
और फेमिली ?
बेटा एम् बी बी एस कर रहा है, बेटी एम् सी ऐ ; बस |
सुखी हो |
बहुत, अब तुम बताओ |
एक प्यारी सी हाउस मेनेजर पत्नी है, सुभी.... सुभद्रा |  बेटा बी टेक कर रहा है और बेटी एम् बी ऐ |
और कविता ?
वो कौन थी !  तीसरी तो कोई नहीं ?
तुम्हें याद है अभी तक वो पागलपन |
एक संग्रह छपा है, ...'तेरे नाम '....
मेरे नाम !
 नहीं,  ’तेरे नाम '....
ओह !, मेरे नाम क्या है उसमें ?
सुबह देखलेना |
            चलो सोजाओ, सुबह बातें होंगीं, फ्री-टाइम में मेरीन-ड्राइव घूमना है, बहुत सी बातें करनीं हैं तुम्हारे साथ |
राजधानी एक्सप्रेस तेजी से भागी जारही थी|  सामने बर्थ पर, सुमित्रा कम्बल लपेट कर सोने के उपक्रम में थी और मेरी कल्पना यादों के पंख लगाकर बीस वर्ष पहले के काल में काल में गोते लगाने लगी |
                                 **                                            **
                  सुमित्रा कुलकर्णी, कर्नल कुलकर्णी की बेटी, चिकित्सा विश्वविद्यालय में मेरी सहपाठी, बैच-पार्टनर, सीट-पार्टनर ;  सौम्य, सुन्दर ,साहसी, निडर, तेज-तर्रार, स्मार्ट, वाक्-पटु, सभी विषयों में पारंगत, खुले व सुलझे विचारों वाली, वर्तमान में जीने वाली, मेरी परम मित्र |  हमारी प्रथम मुलाक़ात कुछ यूं हुई ......
                   रात के लगभग ९ बजे, लाइब्रेरी से बाहर आया तो सुमित्रा आगे आगे चली जारही थी, अकेली |  मैंने तेजी से उसके साथ आकर चलते चलते पूछा, अरे इतनी रात कहाँ से ? रास्ता सुनसान है, तुम्हें डर नहीं लगेगा,  क्या होस्टल छोड़ दूं ?
  वेरी फनी !, डर की क्या बात है !
 ओ के,  वाय, गुड नाईट, मैंने कहा  और चलदिया |
 थैंक्स गाड, जल्दी पीछा छूटा, वह बड़ बडाई |
सात कदम तो साथ चल ही लिए हैं, मैंने मुस्कुराते हुए कहा |
क्या मतलब, वह झेंप कर देखने लगी,  तो मैंने पुनः  'बाय' कहा और चल दिया |
                अगले दिन   फिजियो लेब में सुमित्रा झिझकते हुए बोली, कृष्ण जी, ये मेंढ़क ज़रा 'पिथ' कर देंगे ?
क्यों , मैंने पूछा ?
ज़िंदा है अभी |
तो क्या मरे को मारोगी, हाँ ये बात और है कि, "सुन्दर सुन्दर को क्यों मारे , सुन सुन्दर मेंढक बेचारे |",  बगल की सीट पर बैठा सोम सुन्दरम हंसने लगा | मैंने मेंढक हाथ में लेते हुए कहा, 'ब्यूटीफुल ' |
कौन, क्या ?
ऑफकोर्स, मेंढक, मैंने कहा ; सुन्दर है न ?
 'लाइक यू' | वह चिढ कर बोली |
मैं तुम्हें सुन्दर लगता हूँ |
नो , मेढक, वह मुस्कुराई

इसकी टांगें कितनी सुन्दर हैं, मैं टालते हुए बोला, चीन में बड़ी लज़ीज़ समझकर से खाईं जातीं हैं |
ओके, पैक करके रख दूंगी, घर लेजाना डिनर के लिए |
तुम्हारी टांगें भी सुन्दर हैं, लज़ीज़ होंगी, क्या उन्हें भी .....|
व्हाट द हेल.. ?  (क्या बकवास है)
जो दिख रहा है वही कह रहा हूँ | 
हूँ... , वह पैरों की तरफ सलवार व जूते देखने लगी |
एक्स रे निगाहें हैं... आर पार देख लेतीं हैं, मैंने कहा |
क्या, वह हडबड़ा कर दुपट्टा सीने पर संभालते हुए, एप्रन के बटन बंद करने लगी | मैं हंसने लगा तो, सिर पकड़ कर स्टूल पर बैठ गयी बोली, चुप करो, मेंढक लाओ, मुझे फेल नहीं होना है |
लो क़र्ज़ रहा,मैंने मेंढक लौटाते हुए कहा | वह चुपचाप अपना प्रक्टिकल करने लगी |
                                         **                         **                        ** 
                    डिसेक्सन हाल में मैंने उससे पूछा , सुमित्रा जी, सियाटिक नर्व को कहाँ से निकाला जाय, दिमाग से ही उतर गया है |  'है भी ..' उसने हाथ से चाकू लगभग छीन कर चुपचाप चीरा लगा कर फेसिया तक खोल दिया | बोली आगे बढूँ या....|   अभी के लिए बहुत है मैंने कहा --

              ""आपने चिलमन ज़रा सरका दिया | हमने जीने का सहारा पालिया । ""
सुमित्रा चुपचाप अपने प्रेक्टिकल में लगी रही | बाहर आ कर बोली --
कृष्ण जी, उधार बराबर |
' और व्याज ' मैंने कहा |
सूद !, वह आश्चर्य से देखने लगी |
वणिक पुत्र जो ठहरा |
क्या सूद चाहिए !
             चलो, दोस्ती करलें | काफी पीते हैं, मैंने कहा तो वह सीने पर हाथ रख कर बोली, ओह !, ठीक है, मेरा तो नाम ही सुमित्रा है, दोस्ती करती है तो करती है, नहीं तो नहीं |   

निभाती भी है, मैने पूछा तो बोली, ’इट डिपेन्ड्स’ । 

             केबिन में बैठकर मैंने उसका हाथ छुआ तो कहने लगी, उंगली पकड़ कर हाथ पकड़ना चाहते हैं, एसे तो तुम नहीं लगते|  आशाएं विष की पुड़ियाँ होतीं हैं, बचे रहना |
             सुमित्रा जी, मैंने कहा, 'मैं नारी तुम केवल श्रृद्धा हो'  के साथ पुरुष सम्मान,व नारी समानता दोनों का समान पक्षधर हूँ |  वादा- जब तक तुम स्वयं कुछ नहीं कहोगी, कुछ नहीं चाहूंगा |  स्मार्ट, आत्म विश्वास से भरपूर, मर्यादित नारी की छवि का में कायल हूँ |
            ब्रेवो ,ब्रेवो ! वाह ! क्या बात है, पर ये भाषण तो मुझे देना चाहिए और... ये विचित्र से विचार तो कहीं सुने -पढ़े से लगते हैं,  कृष्ण गोपाल !   हूं, वही तर्क,वही उक्तियाँ, नारी -पुरुष समन्वय, शायरी |  क्या तुम के. जी. के नाम से  'नई आवाज़'  में लिखते हो ?  तुम के जी हो !  उसकी तीब्र बुद्धि का कायल होकर मैं हतप्रभ रह गया और आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराया |
           वह हंसी, एक उन्मुक्त हंसी | कमीज़ की कालर ऊपर उठाने वाले अंदाज़ में बोली, ये हम हैं, उड़ती चिड़िया के पर गिन लेते हैं |  "आई एम् इम्प्रेस्सेड "...  मैं तो केजी की फ़ैन हूँ | कोई कविता हो जाय | वह गालों पर हथेली रखकर श्रोता वाले अंदाज़ में कोहनी मेज पर टिका कर बैठ गयी |   मैंने सुनाया----
" मैंने सपनों में देखी थी , इक मधुर सलोनी सी काया |" ......

" तुमको देखा मैंने पाया यह तो तुम ही थीं मधुर प्रिये |" -----वाह , वह बोली , मैं सुखानुभूति से भरी जारही हूँ, कृष्ण | वह मेरा हाथ पकडे बैठी रही |
      तो दोस्ती पक्की , मैंने पूछा , तो कहने लगी, हूँ ..,अद्भुत तर्क,ज्ञान वैविध्य, विना लाग लपेट बातें, मनको छूतीं हैं कृष्ण; और तुम्हें ...|
     हाँ ,तुम्हारा आत्म विश्वास, सुलझे विचार,वेबाक बातें, काव्यानुराग मुझे पसंद हैं सुमित्रा | वह अचानक सतर्क निगाहों से बोली, कहीं पहली नज़र में प्यार का मामला तो नहीं !   शायद ... और तुम....मैंने पूछा ; तो बोली पता नहीं,  नहीं कर सकती, दोस्त ही रहूँगी, मज़बूर हूँ |
   क्यों मज़बूर हो भई |
   दिल के हाथों, के जी जी | तुम पहले क्यों नहीं मिल, मैं वाग्दत्ता हूँ | रमेश को बहुत प्यार करती हूँ | शादी भी करूंगी |
   ये रमेश कौन भाग्यवान है, मैंने पूछा तो बोली, मेरा पहला प्यार, हम एक दूसरे को बहुत चाहते हैं |  दिल्ली में एम बी बी एस कर रहा है, बहुत प्यारा इंसान है ...... और मैं ...., जब मैंने पूछा तो ख्यालों से बाहर आती हुई बोली, तुम ..तुम हो, अप्रतिम, समझलो राधा के श्याम, और मैं.... तुम्हारी काव्यानुरागिनी | समझे, वह माथे से माथा टकराते हुए बोली |
अब मैं सुखानुभूति से पागल ह़ा जारहा हूँ ,सुमि |
साथ छोड़कर भागोगे तो नहीं |
  नहीं, मैंने कहा, " मैं यादों का मधुमास बनूँ , जो प्रतिपल तेरे साथ रहे ",  तो हंसने लगी.... क्या देवदास बन जाओगे ?  अरे नहीं, मैंने कहा,  क्या मैं इतना बेवकूफ लगता हूँ ?  

  उसने कहा---" मन से तो मितवा हम हो गए हैं तेरे, क्या ये काफी नहीं है तुम्हारे लिए"  और पूछने लगी --- मेरी कविता कैसी है महाकवि के जी ?   मैंने कहा,' आखिर शिष्या किसकी बनी हो |',  हम दोनों ही हंस पड़े, फिर अचानक चुप होगये |
                              **
                                    **                        **      
                      कालेज डे मनाया जाना था|   सुमित्रा तेज तेज चलते हुए आई, बोली - कृष्ण! एक गीत बनाना है और तुम्हीं को गाना है |  मैं नृत्य में अपना नाम दे रही हूँ..... पर मुझे गाना कहाँ आता है, मैंने बताया |   किसी अच्छे गायक को लो न |   नहीं नहीं, वह बोली ज्यादा लोगों को मुंह क्या लगाना, सब तुम्हारे जैसे सुलझे थोड़े ही होते हैं,  वह सर हिलाकर बोली |
            रिहर्शल पर मैंने अपना पार्ट सुनाया -

"तुम स्यामल घन , तुम चंचल मन ,तुम जीवन हो तुमसे जीवन |
तेरी प्रीति की रीति पै मितवा, मैं गाऊँ मैं बलि बलि जाऊं ||"
         सुमित्रा ने सुनाया ----

"तेरे गीतों की सरगम पै, मस्त मगन मैं नाचूं गाऊँ |
तेरी प्रीति की रीति पै मितवा, बनी मोहिनी मैं लहराऊँ || "
             सुमि ने कई बार गा-गा कर बताया, डांस पहले स्लो रिदम पर फिर मध्यम पर अंत में द्रुत पर करूंगी, अंतरा  इस तरह  आदि आदि |   प्रोग्राम बहुत अच्छा रहा।  सुमि नाराज़ होते हुए बोली, बड़े खराब हो के जी, मनही मन मज़ाक बना रहे होगे |  तुम तो बहुत अच्छा गा लेते हो, लगता था जैसे पंख लग गए हों, आज मैं बहुत बहुत बहुत खुश हूँ |  पर ये  "श्यामल घन ".......!  मेरा मजाक तो नहीं उड़ा रहे, वह खुल कर हंसने लगी |
     नहीं जी, श्याम सखी, द्रौपदी, अप्रतिम सुन्दरी, भी कोई बहुत गौर वर्णा नहीं थी |
    मुझे द्रौपदी कह रहे हो ?  मैंने कहा, नहीं भई,  पर क्या द्रौपदी पर कोई शंका है तुम्हें ? तो हंसने लगी, -बोली, नहीं के जी जी, तुम्हारी बात तो बैसे ही सटीक बैठती है,  मैं भी खुद को द्रौपदी कहती हूँ |   मेरे भी पांच पति हैं |  मैंने उसे आश्चर्य से देखा तो बोली -पति क्या है ?  जो पत रखे, पतन से बचाए | शास्त्र बचन है --" यो  सख्यते  रक्ष्यते पतनात इति सः पति ".......
   किस शास्त्र का है, मैंने पूछा | मेरे शास्त्र का, वह हंसकर बोली, मैंने भी हंसकर कहा, तब ठीक है, और पांच पति ?
   जो पतन से बचाए, शास्त्र व माता पिता के बचन, मेरी अपनी शिक्षा- दीक्षा, मेरा चरित्र व आचरण, रमेश, और .ररर ......तुम |  मैं चुप अवाक ... तो बोली, चकरा गए न ज्ञानी ध्यानी, फिर खिलखिलाकर भाग खडी हुई |
                     **                              **                             **  
               धीरे धीरे जब चर्चाएँ गुनगुनाने लगीं तो एक दिन सुमि बोली, डोंट वरी (कोई चिंता नहीं).. के जी | कोई सफाई नहीं, भ्रम में जीने दो सभी को | लगभग सभी बड़ी बड़ी डिग्रियां लेकर अर्थ पुजारी बनने वाले हैं | प्रेम, मित्रता, दर्शन, जीवन-मूल्य, परमार्थ; सब व्यर्थ हैं इनके लिए |  शायद मैं कुछ मतलवी होरही हूँ,  तुम्हें यूज़ कर रही हूँ |  तुम्हारे साथ रहते कोई और तो लाइन मारकर बोर नहीं करेगा |  मैंने प्रश्न वाचक निगाहों से देखा तो पूछ बैठी --
    'कोई भ्रम या अविश्वास तो नहीं लिए बैठे हो मन ही मन | ', 

     कभी एसा लगा, मैंने पूछा | उसके नहीं कहने पर मैंने कहा, तो सुनो ---
" ये चहचहाते परिंदे, ये लहलहाते फूल, अपनी मुख़्तसर ज़िंदगी मैं इतने ग़मगीन तो
नहीं होते कि खुदकुशी कर लें "
       वाउ ! मीना कुमारी पढ़ रहे हो आज कल ...... नहीं अभी तो सुमित्रा कुमारी पढ़ रहा हूँ, मैंने हंसकर कहा तो बोली ........ तो सुनो सुमि का लालची आत्म निवेदन ---
" मैं हूँ लालच की मारी,ये पल प्यार के,
चुन के सारे के सारे ही संसार के ;

रखलूं आँचल में सारे ही संभाल के|

प्यार का जो खिला है ये इन्द्रधनुष,
जो है कायनात पै सारी छाया हुआ ;
प्यार के गहरे सागर मैं दो छोर पर
डूब कर मेरे मन है समाया हुआ | "

चाहती हूं कोई लम्हा रूठे नहीं ,

ज़िन्दगी का कोई रंग छूटे नहीं ॥
                       **                          **                            **           
                 सोचते सोचते जाने कब नींद आगई | सुबह किसी के झिंझोड़ने पर मैं जागा |
   क्या है सुभी सोने दो न |
   मैं सुमि हूँ, केजी ! उठो |  क्या सपना देख रहे हो |
   मैं हडबड़ा कर उठा, ओह ! गुड मोर्निंग |
   वेरी वेरी गुड है ये मोर्निंग, तुम्हारे साथ, कृष्ण !  चलो आज मैं काफी लाई हूँ |  सुमि खुले हुए बालों में फ्रेश होकर दोनों हाथों में कप पकडे हुई थी |  हम दोनों ही हंस पड़े |  मैंने उसे ध्यान से देखा |  बीस वर्ष बाद की सुमि |  वही तेज तर्रार, आत्म विश्वास से भरी गहरी आँखें, मर्यादित पहनावा, गरिमा पूर्ण सौन्दर्य |  कनपटी पर कहीं कहीं झांकते, समय की कहानी कहने को आतुर रुपहले बाल |
     क्या देख रहे हो, सुमि आँखों में झांकते हुए मुस्कुराई |    मै भी मुस्कुराया---

" दिल ढूढता है फिर वही, वो सुमि वो प्यारे दिन,
बैठे हैं तसब्बुर में, जवाँ यादें लिए हुए |"
  तुम तो वैसे ही हो योगीराज ! वह हंसने लगी |
                      **
                      **                    **            
               कार्यक्रमानुसार, हम लोग चौपाटी, मेरीन ड्राइव आदि घूमते रहे |  चाट, भेल पूरी आदि के वर्किंग लंच के बीच पुरानी यादें ताजा करते रहे |  सुमि कहने लगी, सच कृष्ण,  जब भी मैं उदास या थकी हुई परेशान होती हूँ तो चुपचाप झूले पर बैठ कर एकांत में कालिज व तुमसे जुडी हुई यादों में खोजाती हूँ, जो मुझमें पुनः नवीनता का संचार करतीं हैं |  सच है प्यारी यादें सशक्त टानिक होतीं हैं |   क्या में विभक्त व्यक्तित्व हूँ ?  और तुम तो अपने बारे मैं कभी कहते ही नहीं कुछ |
         नहीं सुमि, तुम अभक्त, अनंत, परम सुखी व्यक्तित्व हो, मैंने कहा,  और मैं भी |
         हर बात का उत्तर है तुम्हारे पास और तुरंत | उसने बांह पकड़कर, सर कंधे से लगाते हुए कहा, चलो अब कुछ सुनादो | मैंने सुनाया --
" प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन, साँसों का चलना है जीवन |
मिलना और बिछुडना जीवन, जीवन हार भी जीत भी जीवन ||"
      सुमि ने जोड़ दिया ---

"प्यार है शाश्वत,कब मरता है, रोम रोम में बसता है |
अजर अमर है वह अविनाशी ,मन मैं रच बस रहता है । " 


        ये तुमने कहाँ से याद किया, मैंने आश्चर्य से पूछा |  मैंने तुम्हारी सब किताबें पढीं हैं, वह बोली |  कुछ देर हम दोनों ही चुप रहे, फिर मैंने पूछा- कब जारही हो ?
      आज चार बजे की फ्लाईट से, यहाँ का काम जल्दी ख़त्म होगया |   दो बज रहे हैं, मैंने घड़ी देखते हुए कहा--     एयर पोर्ट छोड़ने चलूँ |
 हाँ |
            हम टैक्सी लेकर सुमि के गेस्ट हाउस होकर एयर पोर्ट पहुंचे | लाउंज के एक कोने में खड़े होकर अचानक सुमि बोली,  मुझे किस करो कृष्ण |
  क्या कह रही हो, मैंने आश्चर्य से उसे देखा |
  अब मैं ही कह रही हूँ, यही कहा था न तुमने |   मैंने ओठों से उसके माथे को छुआ तो वह खिलखिला कर हंसी और हंसती चली गयी .... फिर बोली -
    मैं क़र्ज़ मुक्त हुई कृष्ण, चैन से जा सकूंगी, कहीं भी |  वह गहराई से आँखों में झांकती हुई बोली|
   और सूद, मैंने कहा |
    अगले जन्म मैं |
   हम अगले जन्म में भी पक्के दोस्त रहेंगे,  मैंने अनायास ही हंसते हुए कहा |
   नहीं, पति-पत्नी |
  ' व्हाट !'
   "अगले जन्म की प्रतीक्षा करो केजी "....... और वह तेजी से बोर्डिंग लाउंज में प्रवेश कर गयी |
                                   
                                                 --- इति ---                                         




4 टिप्‍पणियां:

  1. इस सूद के चक्कर में दूसरा जनम लेना पड़ेगा..
    मगर मूल उधर का इतने दिन वापस किया जाना तार्किक नहीं समझ में आता है सामाजिक रूप से..मगर भावनात्मक रूप से सही हो शायद

    ये कवी के जी से एक बार परिचय कराएँ ..

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  2. जाकिर जी...जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ....

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  3. धन्यवाद आशुतोष ...
    --वास्तव में भावनात्मक प्रेमानुभूति की गहराई अमाप्य है...इसमें शारीरिक आकर्षण का महत्त्व ही नहीं होता ....एक क्षण के प्रेम, सिर्फ हाथ छू लेना भर , सिर्फ एक मुलाक़ात, एक मुस्कान , एक झलक से ही प्रेमी निहाल हो जाता है...ज़िन्दगी भर की प्रसन्नता का कारण बन् जाती है, यह अलौकिक मानसिक-बौद्धिक-स्वर्गीय प्रेम-भाव है...अनासक्त प्रेम-मैत्री भाव....उस मूल के एक अंश प्राप्ति( सिर्फ मानसिक तृप्ति-भाव ही ) पर भी असीम आनंदानुभूति हो सकती है...यह तो गूंगे के गुड़ की भांति है .....
    ---- इस प्रेम के सूद लिए तो प्रेमी हज़ार जन्म लेने को भी तैयार रहते हैं...
    "यहि आशा अटक्यो रहै, अलि गुलाब के मूल |
    ऐहैं बहुरि बसंत ऋतु, इन डारिन वे फूल ||"
    --कहानी का पूर्ण-भाव-रूप-कथा मेरे उपन्यास "इन्द्रधनुष" में है ..जिसे धारावाहिक रूप में प्रकाशित किया जायगा ...

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