शनिवार, 30 अप्रैल 2011

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षु : सा श्रीनोत्वकर्ण :|
सा वेत्तिविश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमहुरग्रयम पुरुषं पुराणं ||

( श्वेताश्वतरोपनिषद 3/4 )

परमेश्वर के हाथ नहीं परन्तु वह शक्ति रूप हाथ से ग्रहण करने की क्षमता रखता है, पग नहीं, परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान है, चक्षु रहित होते हुवे भी वह सबको यथावत देखता है, श्रोत्र नहीं तथापि सब कुछ सुनता है, अन्त : करण नहीं, परन्तु सब जगत को जानता है, परन्तु उसे पूर्ण रूप से जानने वाला कोई नहीं, उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबसे पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं.
प्राण जला कर हम देखेंगे, क्यों कर प्रकाश नहीं होता
हुआ अँधेरा महा घनेरा राह न देता दिखाई
छूटी आशा घिरा कुहासा चहुँ और निराशा छाईं
अज्ञान अविद्या और अत्याचार का कभी तो बंधन टूटेगा
कब तक रोकोगे सत्य के सूरज को कभी तो किरण फूटेगा


कितना ही छल बल फैलालो, द्वेष की दीवारें ऊँची कर लो
मानव को मानव से दूर करो या नफरत को उर में भर दो 
जहरीली वाणी के संस्थापक बन, कब तक यूँ ही गाल बजाओगे
जब इस दावानल का अनल निगलेगा, फिर बच के कहाँ तुम जाओगे


स्वधर्म ध्वजा फहराने वालों, कितना द्वेष तुमने फैलाया है
बन धर्म सुधार के ठेकेदार, अपना अस्तित्व भी गंवाया है
सिर्फ लड़ना और लड़ाना सिखा, धर्म की गरिमा भूल गए 
बिखरेगी टूटी माला सी, जो रेत का महल तुने उठाया है


मान बमों पर करने वाले, मानवता को क्या जाने
विस्फोट से इनको मतलब है, सद्धर्म भला ये क्या माने
कितनी देर भला लगती है, ऊपर से नीचे आने को
 
बस एक ही आंसू काफी है, महाभारत ठन जाने को


धीर वीर गंभीर नीर शमशीर तीर से कब रुकते हैं
होकर ये मजबूर, क्रूर शासक के आगे कब झुकते हैं
शासन जब दुशासन हो तो, गदा भीम की उठती है
बिखर जाएगा लहू छाती का, समरांगन रंग जाने को
 

ताज भले मोहताज बने, पर इतिहास तो दास नहीं होता
निर्णय एक पल में हो जाए, क्या तुम्हे विश्वास नहीं होता
परमाणु शक्ति भी फीकी होगी हमारे ढृढ़ हौसले के आगे
प्राण जला कर हम देखेंगे, क्यों कर प्रकाश नहीं होता
 

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

राजभाषा विकास परिषद: भाषा विचार - संप्रेषण की परिणति वाक्य

राजभाषा विकास परिषद: भाषा विचार - संप्रेषण की परिणति वाक्य

हे नारी तू पंगु बने ना


हे नारी तू पंगु बने ना
"कर' मजबूत तू अपनी लाठी 
जभी जरुरत तभी उठा ले 
कच्चा घड़ा है अभी बना ले
नरम है मिटटी मन का मोड़े 
गढ़ दे सुन्दर रूप !!
सोच सुनहरी सपने पहले 
मन में अपने खूब !
कलश बनाये मंदिर होगा 
मूरति शोभित वहीँ कहीं  
फूल बनाये मन मोहेगा
खुश कर सब को चले कहीं
प्याला 'वो' जो कहीं बनाये
मदिरालय में पड़े कहीं
कांटा जो बन गया कहीं तो
चुभे शूल सा जहाँ कहीं
दर्द व्यथा कुछ रक्त आह बस
गीत -न दिखती -हंसी कहीं
तू पारंगत नहीं अगर है
इस जुग की मूरति गढ़ने में
गढ़ दे कुछ भोली सी सूरति
मुस्काती हंसती सी मूरति
बाग-बगीचा वृन्दावन 
प्यार बरसता  जहाँ धरा पर
रास रचे -कान्हा -गोपी या
'लाल'- बहादुर -गाँधी से- रच दे
अमर शहीदों के कुछ रूप
गढ़ दे माँ बैठी तू धूप
अभी जलेगी तो पायेगी छाँव कभी
तेरे सपने इन मूरति में
जो भर पाए
जान जो आये
यही सहारा -तेरी "लाठी"
"कल' को ये -तू- भूल न जाये
हे माँ तू ममता की मूरति
इसके अन्दर ममता  भर दे
समता भर दे
प्यारा-न्यारा राग सभी !!

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
२३.४.२०११ जल पी.बी. 

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

रूहें यहाँ जली काया जो हो अधमरी आह भरती है


रूहें यहाँ जली काया जो
हो अधमरी आह भरती है

 हे मन-मोहन -मन को मोहो
माया अपनी छोडो !!
 अरे सोणिये से जा कह दे 
बहू हमारी गृह लक्ष्मी है ?? 
तुलसी-राम के आँगन आई !
इस धरती की आज वेदना -दर्द हमारा
चिट्ठी पाती -रचना लेख
वहीँ से पढ़ ले !!

जन-जागरण से जुडी रहे वो 
एक चिट्ठी तो नाम हमारे 
अपने मन की महिमा सारी
मन आये जो कभी तो लिख दे

"शांति" रहे भूषण -आभूषण 
कितने  -रोज हमें  मिल जाएँ
अन्ना -अन्न- हमारा भाई
बिन उसके हम ना जी पायें

तुम अबोध –‘बालक से हो के
प्रेम बीज सच इस धरती पर
दिवस’- निशा संग आ के बो दो

अलका सी तुम अलख जगाओ
प्रात काल  की स्वर्णिम बेला
कमल के जैसे खिल के अपने
भारत को तुम हंसी दिलाओ

जो गरीब -बच्चे-भूखे हैं
पेट भरे -तुम उन्हें पढ़ा दो
हो विनीत आदर्श प्यार से
लाल-बहादुर-बाजपेयी बन
अच्छाई का यश तुम गा दो

राम राज्य का सपना ही न
राम-राज्य ला के दिखला दो
नीलम मोती मणि को गुंथ के
हार बनाओ हाथ मिलाओ
गले मिलाओ-सचिन के जैसे
छक्के -जड़ के विश्व पटल पर
भारत का झंडा फहरा दो !!

रचना – ‘प्रियासे प्रेम बढ़ा के
नारी को सम्मान दिलाओ
दीप-संदीप करो उजियारा
ब्रज-किशोर चाहे हरीश या आशुतोष बन
मंगल धरती मदन अमर कर !!

सेवा भाव सदा ही रखना
माँ का नित ही नमन करो
कोमल-कपिल-दिव्य-मृतुन्जय
विश्वनाथ बन -कंचन -बरसा दो

तू मनीष चाहे सलीम बन
आलोकित- पुलकित -मन कर दे
संगीता- रजनी या मोनिका
गृह लक्ष्मी -शारद  बन जाओ

अख्तर- खान -अकेले बढ़ के
हीरा ढूंढो और तराशो
डंडा चाहे चक्र चला दो

मथुरा में दिव्या क्यों रोती
श्याम उसे तुम न्याय दिला दो
तन्मय हो के –‘राज छोड़ दे
गाँधी का तुम भजन सुनाओ !!
सुशील, ‘चैतन्य ,’रवि या दिनेश हो
धरती को जीवन दे जाओ
हे देवेन्द्र’- कृशन’- गगन पर
सत्यम शिवम् सुंदरम लिख के
मोती अमृत कुछ बरसाओ !!!

आशा- लता -है  कुम्हलाई जो
सींच उसे - कुछ शौर्य सुना दे
गीत - भजन -कुछ ऐसा गा दें  
युवा वर्ग में जोश जगा दे !!


रूहें यहाँ जली काया जो
हो अधमरी आह भरती हैं
प्रेम’- सुधा रस शायद पी के
जी जाएँ कुछ क्रांति करें !!

सोच नयी हो- भाई-चारा
धर्म -जाति-बंधन या भय से
मुक्त हुए सब गले मिले
कहें 'भ्रमर' तब दर्द दूर हो
बिन भय दर्पण जब सब कह दे !!

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
२४.४.२०११ जल पी बी 

अब जब नहीं हो तुम मेरे पास,

अब जब नहीं हो तुम मेरे पास,

अब जब नहीं हो तुम मेरे पास,
नहीं लिखता हूँ कोई गीत,
तुम्हारे न होने पर....
नहीं आती है,अब तुम्हारी याद...
नहीं होता है अब ये मन,
तुम्हारी याद में उदास.
अब जब नहीं हो तुम मेरे पास......

कुछ शब्द चुपके से आते हैं.,
विस्मृत स्मृतियों पर,
धीरे से दस्तक दे जातें हैं..
अब नहीं पिरो पाता हूँ, इनको अपनी कविता में..
अब नहीं दे पाता हूँ ,इन शब्दों को अपनी आवाज..
अब जब नहीं हो तुम मेरे पास....................

अब जब नहीं हो तुम मेरे पास..
यूँ ही बीत जातें हैं ये दिन,
बरसों हो गए, रूकती नहीं है,
कभी ये काली स्याह रात ...
अब जब नहीं हो तुम मेरे पास.......

अनजान रास्तों पर, यूँ ही निकल पड़ता हूँ.
कभी गिरता हूँ कभी संभालता हूँ...
अनजाने में महसूस करता हूँ,
कुछ पल के लिये तुम्हारा साथ..
ये जानते हुए भी की मेरे हाथों में,
अब नहीं है तुम्हारा हाथ...
अब जब नहीं हो तुम मेरे पास..........

ये आँसू अब कभी नहीं बहते हैं,
मन की पीड़ा सबसे नहीं कहतें हैं,.
अगली बार जब तुम मिले,
तो हर लम्हा आँखों मे समेट लेंगे
इसी प्रत्याशा में पलकों पे रुके रहते हैं .....

ये आँसू ...
अब नहीं करातें हैं,
तुम्हारे दूर जाने का एहसास...
अब जब नहीं हो तुम मेरे पास......

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

राजभाषा विकास परिषद: सामान्य रूप से प्रयुक्त हिंदी शब्दों के निर्माण की प्रक्रिया

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उस कुर्सी क्या आग लगी है ???




नेता- डी. एम .- मंत्री- सारे
‘अपने घर के’-अपने बच्चे’ !!
इन्हें सिखाकर  हमने भेजा
गाँव -बड़ों का सब संदेसा !!
‘सड़क’ हमारी  जैसे नाली
नदीनाव’  -
कितने प्यारे डूब मरे  
वो किसान लेकर्ज’ मरा था
चलामुकदमा’ दो पुस्तों से
‘बूढ़े’ को कुछ कुत्ते नोचे
"छुटकी" को कुछ मिल केबेंचे’
उसके 'मरद' ने उसको छोड़ा
कुछ ने 'होली' फूंकी
कटे -पेड़ साबाप’ पड़ा है
रोजकचहरी’ चला -खड़ा है
उस घर में 'इन्सान' रहते
जिनका 'पाँव-पूज' हम चलते
'लात' मार वो हमें विदा कर
मूंछों अपनी 'तावजो  धरते
सब माना  था उसने जाकर
'बड़ा' बनूँ -कुछ -कुर्सी पाकर
'ताकतवर' जब शासन पाऊँ
दूरसमस्या’ सब कर पाऊँ
उसकुर्सी’ क्या आग लगी है ????
सभीआत्मा’ –‘संस्कृति’ अपनी
सभीसमस्या’ है –‘जल’ मरती ??
'अपने घर' के 'अपने बच्चे'
जब भी ‘घर’ में आयें 
आओ उन्हें ‘जगा दें’ भाई
पुनः पुनः उनकीआत्मा’ को
"अमृत" से नहलाएं 
‘होश’ दिलाएं 
इसदुनिया’ की
इसमाटी’ की -
‘परिपाटी’ की
उनमे डालेंजान
अगर यही 'जागृत' कर पायें
भारत बने महान  !!!

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
..2011